भारत की आत्मा को अगर किसी ध्वनि में सुना जा सकता है, तो वह हिंदी की बोली है। यह वह भाषा है जो गंगा की धारा की तरह अविरल बहती रही है – कभी संतों के दोहों में, कभी क्रांतिकारियों की हुंकार में, तो कभी आमजन की रोज़मर्रा की गुफ़्तगू में।
हिंदी सिर्फ़ शब्दों का मेल नहीं, बल्कि करोड़ों दिलों की धड़कन है; खेत-खलिहान से लेकर संसद भवन तक, लोकगीतों से लेकर संविधान के अनुच्छेदों तक, यह हमारी पहचान की गवाही देती है।
इसी पहचान को याद करते हुए, 14 सितम्बर 2025 के हिंदी दिवस पर मेरे मन में अपनी जड़ों की मिट्टी की गंध उठती है- मोतिहारी की वही धरती, जहाँ गांधीजी ने सत्याग्रह का बीज बोया था। शायद इसी कारण हिंदी मेरे लिए किताबों की भाषा भर नहीं, बल्कि संघर्ष, आत्मबल और अस्मिता से जुड़ी जीवनदायिनी विरासत है।
शायद इसीलिए जब भी हिंदी पर बातचीत होती है, मेरे भीतर का “अंदरूनी गांधी” जाग उठता है – सवाल करता है: क्या भाषा भी किसी का ‘अधिकार’ हो सकती है, या यह तो सबकी साझी थाती है?
मेरी दादी-नानी कहा करती थीं, “बेटा , हिंदी कोई ज़ुबान नहीं, ये तो घर का आँगन है। इसमें तुलसी की महक है, कबीर का फटकार है, प्रेमचंद का आँचल है, और फणीश्वरनाथ रेणु की लोकधुन है।” सच ही तो है!
आज हम हर साल दो दिन मनाते हैं – ‘विश्व हिंदी दिवस’ (10 जनवरी) और ‘राष्ट्रीय हिंदी दिवस’ (14 सितंबर)।
- ‘विश्व हिंदी दिवस’ (10 जनवरी) हमें बताता है कि हिंदी का स्वर अब वैश्विक हो चला है – अफ्रीका की सड़कों से लेकर मॉरिशस और फ़िजी के आँगनों तक।
- राष्ट्रीय हिंदी दिवस (14 सितंबर)हमें याद दिलाता है कि भारतीय संविधान के भाग XVII (अनुच्छेद 343 से 351) ने हिंदी को सिर्फ़ “राजभाषा” का दर्जा ही नहीं दिया, बल्कि उसे भारतीय लोकतंत्र के दिल में जगह दी है। आठवीं अनुसूची में हिंदी समेत 22 भाषाएँ हैं, पर हिंदी के साथ राजनीति का समीकरण सबसे जटिल है।
आज़ादी की लड़ाई और हिंदी का सपना
आज़ादी की लड़ाई में हिंदी सिर्फ़ भाषा नहीं रही; वह जन-जन का घोषवाक्य बनी। महात्मा गांधी ने इसे “जन की भाषा” कहा।
गणेश शंकर विद्यार्थी, भगत सिंह, सुभद्राकुमारी चौहान – सबने हिंदी को हथियार बनाया। “झाँसी की रानी” की कविता आज भी स्कूलों में बच्चे गुनगुनाते हैं। उस दौर में हिंदी एकता की डोर बनी थी।
पर आज़ादी के बाद? वही डोर सत्ता की खींचतान में उलझ गई!
हिंदी को राजभाषा तो बना दिया गया, लेकिन “राष्ट्रीय भाषा” का तमगा अब भी विवादों में है!
संविधान की धाराओं से राजनीति का रंग
अनुच्छेद 343 कहता है कि केंद्र की राजभाषा हिंदी होगी, साथ में अंग्रेज़ी भी। अनुच्छेद 351 हिंदी को समृद्ध करने, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को जोड़ने का ज़िम्मा सौंपता है।
पर हुआ क्या?
हिंदी को संवारने के नाम पर उसे राजनीति की ताश की गोटी बना दिया गया!
दक्षिण भारत के नेताओं ने इसे “थोपने” का आरोप लगाया, उत्तर भारत के नेताओं ने इसे “अस्मिता” का मुद्दा बनाया।
कभी हिंदी का झंडा ओढ़कर चुनाव लड़े जाते हैं, तो कभी “एंटी-हिंदी” आंदोलन से वोट बटोरे जाते हैं।
समकालीन समय की विडंबना
आज IT पार्क में काम करने वाला युवा “मीटिंग शेड्यूल” करता है, “फॉलो-अप मेल” भेजता है, पर जब माँ से बात करता है तो “खाना खा लिया?” सिर्फ़ हिंदी में ही निकलता है।
दिलचस्प यह है कि जो हिंदी गली-कूचों में “टपक-टपक” कर बोली जाती है, वही बॉलीवुड के गीतों, OTT सीरीज़ की डायलॉगबाज़ी और विज्ञापनों में करोड़ों की कमाई कर रही है।
पर राजनीति अभी भी वहीं अटकी है – “हिंदी बनाम गैर-हिंदी”
भाषा का असली मकसद क्या?
भाषा का काम जोड़ना है, तोड़ना नहीं। हिंदी ने भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, बुंदेली जैसी बोलियों को साथ लेकर हमेशा सरोवर की तरह सबको जगह दी है। लेकिन अफ़सोस, नेता लोग इस सरोवर को तालाबंदी कर वोटबैंक सींचने लगे।
मेरी अपनी यात्रा
एक लेखक और अध्यापक के तौर पर मैंने देखा है।जब मैंने अपनी 3-पुस्तक सीरीज़ “हर हाल खुशहाल” लिखी, तो पाठकों ने कहा: “डॉ. वर्मा, इसमें हमारी माँ की बोली की गरमी है और हमारे ऑफिस की भाषा की स्पष्टता भी।”
शायद यही हिंदी की असली ताक़त है – यह दफ़्तर की गंभीरता भी ढो सकती है और आँगन की गोद भी।
आखिर हिंदी किसकी है?
मुझे हमेशा याद रहता है, गाँधीजी ने कहा था, “हिंदी हिंदुस्तान की जननी है।”
लेकिन आज सवाल यह नहीं है कि हिंदी किसकी भाषा है; असली सवाल है – क्या हम हिंदी को सिर्फ़ राजनीति की ज़मीन पर बोएँगे या साझी संस्कृति की ज़मीन पर सींचेंगे?
मैं चाहती हूँ कि आने वाली पीढ़ी हिंदी से डरकर न भागे, बल्कि गर्व से कहे:
“ये भाषा मेरे दिल की है, न कि सिर्फ़ मेरे वोट की।”
यही हिंदी का असली रूप है – इतिहास की धरोहर, संविधान की पहचान, आज़ादी की आवाज़ और आज की ज़रूरत।
आप सभी को हिंदी दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं
प्रणाम !



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