मैं रेडियो पर गाने सुन रही थी तभी एक गाना बजा फिल्म थी ‘एक फूल दो माली‘. और गीत था , ‘आज उंगली थाम के तेरी तुझे चलना मैं सिखलाऊं, कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं.‘ सुन कर मै इमोशनल हो गयी क्योंकि मैं भी वृद्धावस्था की और जाती हुई एक मां हूँ लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान सामाजिक मूल्यों में आए बदलाव के कारण ‘एक फूल दो माली’ फिल्म के इस गीत की यह पंक्ति अब बेमायने हो गयी है। समाज में वरिष्ठ नागरिकों की निरंतर होती उपेक्षा से प्रभावित होकर सरकार को 2007 में ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण और कल्याण’ कानून ही नहीं बनाना पड़ा बल्कि वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा और सम्मानपूर्ण तरीके से जिंदगी जीने के उनके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है. आज की स्थिति यह है कि बेटा अपनी मां को बेआबरू कर रहा है तो कहीं पोता अपने दादा को लूटने से बाज नहीं आ रहा है. परिवारों में वृद्ध माता-पिता और दूसरे बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा है क्योंकि संपन्नता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ रहे पुत्र-पुत्रियों और बहुओं और दामादों के आचरण के कारण आज घर की चारदीवारी के भीतर के विवाद अदालतों में पहुंचने लगे है। इन विवादों में अक्सर देखा जा रहा है कि संतानों ने माता-पिता की संपत्ति पर कब्जा करने के बाद उन्हें दर-बदर की ठोकर खाने या फिर असहाय होकर परिस्थितियों से समझौता करके खुद को भाग्य के सहारे छोड़ देने के लिए मजबूर कर दिया है. वृद्ध हो रहे माता-पिता और परिवार के अन्य बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उपेक्षा और उनकी संपत्ति हड़पने के लिये उन्हें घर में प्रताड़ित करने और उनका परित्याग करने जैसी घटनाओं में वृद्धि को देखते हुये ही हमारी संसद ने समाज के एक वर्ग के हितों की रक्षा के लिये माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून बनाया. केन्द्र सरकार ने दिसंबर, 2007 में ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून’ पूरे देश में लागू किया.हालांकि यह कानून आज बुजुर्ग माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के लिये सुरक्षा का बहुत बड़ा हथियार बन चुका है लेकिन यह स्थिति सुखद नहीं है. अपने ही देश, समाज और घर परिवार में बेगाने होते जा रहे बुजुर्गों की स्थिति से उच्चतम न्यायालय भी चिंतत है.वृद्धजनों के हितों की रक्षा के लिये 2007 में बने कानून में भरण-पोषण न्यायाधिकरण और अपीली न्यायाधिकरण बनाने की व्यवस्था है. ऐसे न्यायाधिकरण को वरिष्ठ नागरिक से शिकायत मिलने के 90 दिन के भीतर इसका निपटारा करना पड़ता है और कुछ परिस्थितियों में यह अवधि 30 दिन के लिये बढ़ाई जा सकती है. भरण-पोषण न्यायाधिकरण ऐसे वरिष्ठ नागरिक को उसके बच्चे या संबंधी से भरण-पोषण के रूप में 10 हजार रुपए तक प्रतिमाह का भुगतान करने का आदेश दे सकते हैं.इस कानून के तहत वृद्ध माता-पिता की मदद के लिये राज्यों के प्रत्येक उपमंडलों में भरण-पोषण न्यायाधिकरण गठित करने का प्रावधान है लेकिन अभी तक कई राज्यों में इस कानून के तहत माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण के मामलों की सुनवाई के लिये पर्याप्त संख्या में न्यायाधिकरण नहीं हैं.
अब न्याय प्रक्रिया के कड़े रुख का ही नतीजा है कि परिवार में माता-पिता और दूसरे वरिष्ठ नागरिकों से दुर्व्यवहार करने, मारपीट करने और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करने वाली संतानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करना अधिक सहज होता जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद देश के सभी राज्यों में वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गों में इस कानून के प्रति जागरूकता पैदा करने और पर्याप्त संख्या में भरण-पोषण न्यायाधिकरण स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि उपेक्षाओं और अत्याचारों से पीड़ित माता-पिता को कम समय में न्याय मिल सके.एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में वरिष्ठ नागरिकों की जनसंख्या 11 करोड़ से अधिक है और अगले दो साल में इसके बढ़कर 14 करोड 30 लाख हो जाने की उम्मीद है. तेजी से बदल रहे सामाजिक ताने-बाने और इसमें बुजुर्गों की स्थिति की गंभीरता को देखते हुये न्यायालय भी चाहता है कि देश के प्रत्येक जिले में वृद्धाश्रमों का निर्माण हो जहां परिवार से त्याग दिये गये वरिष्ठ नागरिक सम्मान के साथ जिंदगी गुजार सकें. परिवार के सदस्यों के अत्याचारों से परेशान बुजुर्ग आज इस कानून के प्रावधानों का सहारा लेकर अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे हैं और उन्हें वहां से अपेक्षित राहत भी मिल रही है. अदालतें भी अपनी व्यवस्थाओं में स्पष्ट किया है कि वरिष्ठ नागरिकों की संपत्ति के संरक्षण के अधिकार में संतान को बेदखल करना भी शामिल है. न्यायिक व्यवस्थाओं में यहां तक कहा गया है कि कोई भी संतान अपने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक के घर में जबर्दस्ती नहीं रह सकती है.अदालतों ने स्पष्ट किया है कि इस कानून के तहत गठित भरण-पोषण न्यायाधिकरण वृद्ध माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक का उत्पीड़न और उनके साथ दुर्व्यवहार करने वाली संतानों को उनके मकान से बेदखल करने का आदेश दे सकती है.
बिहार सरकार ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है कि माता-पिता की सेवा नहीं करने और उन पर अत्याचार करने वाली संतानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी और उन्हें जेल भेजा जायेगा. यदि अन्य राज्य सरकारें भी इस कानून और इसके प्रावधानों को कठोरता से लागू करने का निर्णय कर लें तो निश्चित ही वृद्धजनों को अपने ही घरों में बेगानों जैसी जिंदगी गुजारने के लिये मजबूर नहीं होना पड़ेगा और संतानों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से उन्हें प्रभावी तरीके से संरक्षण भी मिल सकता है.वरिष्ठ नागरिकों की स्थिति को लेकर न्यायपालिका ने भले ही ठोस कदम उठाने का संकेत दिया है लेकिन यह समझ से परे है कि क्या अपने बुजुर्गों के प्रति परिवारों की कोई जिम्मेदारी नहीं है. हम इतने स्वार्थी और खुदगर्ज कैसे हो सकते हैं कि कहीं संपति हथियाने की खातिर तो कहीं दूसरे अपरिहार्य कारणों से परिवार के इन बुजुर्गों की देखभाल करने की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने लगे. परिवार के बुजुर्गों को प्यार और सम्मान देने की बजाय उनका तिरस्कार करने और उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयास करने वाली संतानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भविष्य में वे भी इस अवस्था में पहुंचेगे और यदि उनके बच्चों ने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया तो तो उन्हें कैसा लगेगा?