नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं.पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है. आप इसे ऐसे समझ सकते हैं. आज की व्यवस्था में अगर चार साल इंजीनियरिंग पढ़ने या छह सेमेस्टर पढ़ने के बाद किसी कारणवश आगे नहीं पढ़ पाते हैं तो आपके पास कोई उपाय नहीं होता, लेकिन मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी. इससे उन छात्रों को बहुत फ़ायदा होगा जिनकी पढ़ाई बीच में किसी वजह से छूट जाती है.नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी भी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाख़िला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक ख़ास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं.उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं. जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा. जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे.
नई शिक्षा नीति के प्रारूप (ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी – डीएनईपी) का एक महत्वपूर्ण सुझाव है कि स्कूल से निकलने वाले बच्चों की बोर्ड परीक्षा के पैटर्न में बदलाव किया जाए। अगर इस सुझाव को लागू किया जाता है तो यह शिक्षा व्यवस्था व परीक्षा प्रणाली में एक बड़े सुधार का प्रयास होगा। सुझाव के अनुसार बच्चों को परीक्षाओं की तरफ धकेलना और भय पैदा करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इसकी बजाय उनके सीखने का आकलन करने के सिद्धान्त को अपनाया जाना चाहिए।
लेकिन आजकल कुकुरमुत्ते की तरह फैले हुए कोचिंग सेंटर, जो आज के समय में माध्यमिक शिक्षा और इससे आगे की शिक्षा की अधिकांश विषयवस्तु और कक्षा की प्रक्रियाओं को तय करते हैं, सीखने को बिलकुल भी प्रोत्साहित नहीं करते। समाज और बाज़ार के दबाव बहुत अधिक हैं जो बड़ी आक्रामकता के साथ विद्यार्थियों और उनके पालकों को ज़्यादा-से-ज़्यादा नम्बर लाने की तरफ, यानी ज़्यादा-से-ज़्यादा कोचिंग की तरफ, धकेलते हैं। ये कोचिंग सेंटर इस तरह की अपेक्षाएँ और आशाएँ जगा देते हैं कि उनकी मदद से विद्यार्थी किसी जाने-माने कॉलेज जैसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) और ऐसी ही अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं में दाखिले की लकीर को पार कर सकते हैं। पतन की तरफ जाती बाकी संस्थाओं और बढ़ती बेरोज़गारी के बीच एक सुरक्षित भविष्य पाने की यह धुँधली-सी आस ही बोर्ड परीक्षाओं में अपने बच्चों से 90 प्रतिशत से ज़्यादा नम्बर लाने की पालकों की आकांक्षाओं को बढ़ाती रहती है।और इस तरह इस प्रक्रिया में कोचिंग उद्योग हज़ारों करोड़ रुपए बना लेता है, और इसीलिए वर्तमान परीक्षा प्रणाली को जारी रखने में उसका बहुत गहरा स्वार्थ निहित है। कई कोचिंग संस्थान स्कूलों को अपने हाथ में लेने के बाद खुद ही इन हाईस्कूलों को चला रहे हैं। कोचिंग की संस्कृति स्कूलों की प्रमुख संस्कृति बन गई है और इस तथ्य को बड़े गर्व के साथ बताया जाता है।
नई शिक्षा नीति में आकलन के स्वरूप को बदला जाएगा ताकि वह विद्यार्थी के विकास में सहयोगी हो सके। सभी परीक्षाएँ (जिनमें बोर्ड परीक्षाएँ भी शामिल होंगी) मूलभूत अवधारणाओं को लेकर विद्यार्थियों की समझ और कौशलों के साथ उनकी उच्च स्तरीय क्षमताओं की जाँच करेंगी। लेकिन क्या यह सुधार बड़े स्तर पर कारगर सिद्ध होगा?
बोर्ड परीक्षाओं को आम तौर पर ऐसी संस्थाओं के रूप में देखा जाता है जो विद्यार्थियों में एक निश्चित स्तर की योग्यता होने को प्रमाणित करती हैं जिसके बाद ये विद्यार्थी कॉलेज शिक्षा या अन्य पेशों की तरफ बढ़ सकते हैं। हमारे यहाँ बोर्ड परीक्षाएँ हकीकत में प्रवेश परीक्षाएँ ही होती हैं। आज के वक्त में स्कूल की बोर्ड परीक्षाओं का मकसद ऊँचे नम्बर हासिल करने वाले कुछ हज़ार विद्यार्थियों को योग्य करार देना है, जबकि लाखों अन्य विद्यार्थी औसत दर्जे की संस्थाओं में खुद ही अपने भविष्य को सँवारने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण और परेशान करने वाली बात यह है कि वे लोग खुद को ‘असफल इन्सान’ के रूप में देखने लगते हैं।अगर हम इस सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो यह अनिवार्य है कि सबसे पहले हम आई.आई.टी. और मेडिकल कॉलेजों के लिए होने वाली सबसे प्रतिष्ठित प्रवेश परीक्षाओं को बदलें। प्रवेश परीक्षाओं की मौजूदा प्रणाली और कोचिंग संस्थाएँ मिलकर ऐसी क्रूर सामाजिक छलनियों के रूप में काम कर रहे हैं जिन्हें दुर्भाग्यवश आवश्यक समझा जाता है ताकि लाखों बच्चों में से कुछ हज़ार बच्चे इन प्रवेश परीक्षाओं में चुन लिए जाएँ।
क्या प्रतिष्ठित प्रवेश परीक्षाओं के लिए विद्यार्थियों के चयन की थोड़ी नरम एवं लचीली प्रक्रिया के बारे में सोचा जा सकता है जो निष्पक्ष हो और सबके लिए न्यायसंगत भी लगे? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब हमें मिल-जुलकर देना होगा।बोर्ड परीक्षाओं के खाके में बदलाव की शुरुआत सम्भ्रान्त उच्च शिक्षा संस्थाओं के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं के खाके में बदलाव से होनी चाहिए। सबसे पहले परीक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम की विषयवस्तु के दायरे को घटाना होगा। दूसरे, परीक्षा लेते वक्त ज़ोर समझ, सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति पर होना चाहिए। इसके बाद बोर्ड परीक्षाओं में बदलाव स्वाभाविक होने लगेंगे। ।क्या राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) समिति के प्रबुद्ध सदस्य आई.आई.टी. प्रॉफेसरों के उस समूह से बात करेंगे जो अपने संस्थानों की प्रवेश परीक्षा के खाके को तैयार करते हैं, ताकि समाज के व्यापक कल्याण के लिए विद्यार्थियों के आकलन की प्रणाली में बदलाव किया जा सके? राष्ट्रीय योग्यता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की प्रवेश परीक्षाओं के लिए ज़िम्मेदार लोग भी इसी तरह की चर्चाओं में शुमार हो सकते हैं। वे अलग लक्ष्य स्थापित करके भी प्रतिभाओं को आकर्षित करते हुए अपनी उत्कृष्ट स्थिति को बनाए रख सकते हैं। यही प्रभावी सामाजिक संकेतक है — ऐसी प्रेरक शक्ति जो परोक्ष रूप से स्कूली पाठ्यचर्या और कक्षा की संस्कृति को तय करती है। विभिन्न तरह की बोर्ड परीक्षाएँ या एन.सी.ई.आर.टी. तय नहीं करती कि क्या पढ़ाया जाना चाहिए और कैसे। अगर सबसे पहले कदम के रूप में प्रवेश की प्रक्रियाएँ बदल जाएँ तो बोर्ड परीक्षाएँ इसका अनुसरण करते हुए अपने आकलन की प्रणाली को बदल लेंगी, इसकी सम्भावना बनती है। यह आकलन के तरीके में बड़े बदलाव की राह हो सकती है जिसका स्कूलों और शिक्षकों की संस्कृति पर गहरा असर पड़ेगा।
The author describes the education policy very well well researched