प्रेम और साहस जैसे बहुमूल्य गुणों से स्वयं प्रकृति ने मादा प्रजाति को सम्मानित किया है। तिरस्कृत होने पर भी प्रेम बनाये रखने और कठिन समय में साथ देने का अदम्य साहस केवल उन्ही में होता है।
बिहार के एक छोटे से गांव में बीसू और उसकी पत्नी राधा रहते थे। ज़मींदार के खेतों में मजदूरी कर के किसी प्रकार गुजारा कर लेते थे। बीसू तैराकी चैंपियन था परन्तु भारत में खिलाडियों की दशा सोचनीय ही है। कोई काम न मिलने पर मजदूरी करने को विवश था। अक्सर राधा से कहता “मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरा एक बेटा हो जिसे मैं जी जान से तैराकी सिखाऊंगा और विदेश भेजूंगा नाम और पैसा कमाने।” इसी उम्मीद के सहारे जी रहा था कि कभी उसके दिन भी बदलेंगे। लेकिन राधा और बीसू को एक के बाद एक तीन कन्या रत्नों की प्राप्ति हुई। बीसू मायूस हो गया। सीधे मुँह न पत्नी से बोलता न ही बच्चियों से। सांझ ढले घर आता तो बेटियां दौड़ कर पानी लातीं, मुँह हाथ धुलातीं मगर वह एक नज़र देखता तक नहीं। उलटे बरस पड़ता ” तुम्हारी अम्मा कहाँ है ? कितनी बार कहा है कि मुझे तुम्हारी शकलें नहीं देखनी मगर फिर भी रोज़ पानी लेकर तुम लोगों को ही भेज देती है ” बेटियां सहम जातीं।
फिर एक दिन पूछ ही लिया ” अम्मा बाबा हमसे इतना गुस्सा क्यों रहते हैं ”
राधा बोली ” तुम्हारी कोई गलती नहीं मेरी बच्चियों! तुम्हारे बाबा चाहते थे कि बेटा हो तो वह उसे तैराकी सिखाकर विदेश भेजते और वह खूब कमाता और बाबा आराम करते। मगर अब बेटियों से तो यह संभव नहीं सो चिड़चिड़े हो गए हैं।”
” बस! तुम देखती जाओ अम्मा हम कैसे बाबा का सपना पूरा करते हैं। ”
” तुम क्या करोगी?”
“तुम बस हमें सुबह उठा देना जल्दी। बाकि हम खुद समझ लेंगे ”
दूसरे दिन से तीनो जल्दी उठकर नदी चली जाती और वहीँ से विद्यालय। खून में ही तैराकी थी सो जल्दी ही तैरना सीख भी गयीं। सबसे बड़ी कल्याणी थी जो बहुत ही होशियार थी। ऐसे करतब दिखाती कि दोनों छोटी रुक्मिणी और शारदा देखती रह जाती। वैसे वो दोनों भी अच्छा तैरती थी मगर उम्र कम थी अभी।
एक दिन मास्टरजी ने कल्याणी को देखा तैरते हुए तो बड़ा अचरज हुआ और बोले ” तुमने बताया ही नहीं बिटिया कि तुम्हे तैरना आता है। इस प्रतिभा को जाया ना करना। मेहनत करती रहो और मैं शहर के कोच से बात करूँगा तुम्हारे लिए। ”
शहर के कोच ने बुलाया तो मास्टरजी ने बीसू से बात की तो वह बोला ” मैं इन फालतू खर्चों को नहीं उठा सकता। शादी के लिए जोड़ रहा हूँ खेल कूद के लिए नहीं ”
मास्टरजी ने खुद ही ज़िम्मेदारी ली और बस बिटिया को ले जाने कि अनुमति ले ली। शहर पहुंच कर कल्याणी ने फिर कभी मुड़कर नहीं देखा। प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी अपनी प्रतिभा के बल पर एक के बाद एक प्रतियोगिताएं जीतती गयी और करीब दो साल बाद उसका राष्ट्रिय तैराकी प्रतियोगिता में नामांकन हो गया। जब बीसू को पता चला तो वह आश्चर्यचकित हो गया। पहली बार उसे बेटी का पिता होने पर दुःख नहीं हुआ। सारा परिवार दिल्ली पहुंच गया और नियत समय पर प्रतियोगिता वाले स्थान पर पहुंच गया।
कड़ी टक्कर के बावजूद भी कल्याणी जीत गयी और जब उसे माननीय मंत्री महोदय से ट्रॉफी लेने के लिए बुलाया गया तो उसने मंत्रीजी से कहा कि ” मैं आज जो भी हूँ अपने अम्मा बाबा की वजह से हूँ इसीलिए वह अपने बाबा के हाथों ही ट्रॉफी लेना पसंद करुँगी “।
ट्रॉफी देते समय बीसू की आँखों में ख़ुशी पश्चाताप और गर्व के आंसू थे। आखिर उसकी बेटी ने साबित कर दिया कि वह किसी बेटे से कम नहीं है। कल्याणी ने पूरे गांव को यह सन्देश दिया कि बेटा हो या बेटी उचित मार्गदर्शन से दोनों ही ऊँचा मुकाम हासिल कर सकते हैं।
नोट: यह एक काल्पनिक कृति है। जीवित अथवा मृत किसी भी व्यक्ति से किसी भी प्रकार की समानता पूर्णतः संयोग हो सकता है ।