सातवीं कक्षा में पहली बार कृष्ण जन्माष्टमी पर व्रत रखा था। उस समय ‘मीरा’ जैसी बनने का फितूर सवार हुआ था सर पर। शाम को मम्मी की साड़ी जैसे-तैसे पहनकर तैयार होकर बैठ गयी। रात में दस बजे पास के मंदिर में मम्मी-पापा के साथ गई, जहाँ बहुत धूमधाम से बारह बजने का इंतजार हो रहा था। बच्ची थी तो नींद भी आने लगी थी उस वक्त तक और सुबह से निर्जला व्रत था तो कमजोरी भी थी। हालाँकि, एक बार छुप कर पानी पी लिया था।
सातवीं कक्षा से जो सिलसिला शुरू हुआ, वो आज तक जारी है। मेरा दिल्ली में अपना घर नहीं है, पांच-छह साल एक जगह रहने के बाद दूसरी जगह का रुख करते हैं, लेकिन संयोग से हर जगह कृष्ण भक्त मिल जाते हैं। राखी के बाद से ही सभी के घरों में खूब चहल-पहल होती, रात में सब साथ मंदिर जाते और बारह बजे चरणामृत लेकर सब साथ ही पैदल घर तक आते। सुनसान रात में चलने में बड़ा आनंद आता था हम सभी को। लेकिन, इस बार जन्माष्टमी जन्माष्टमी जैसी नहीं लग रही। हम नई जगह शिफ्ट हुए हैं और यहाँ ऐसी चहल-पहल नहीं लग रही। हर जगह एक जैसे किराएदार मिले वो तो संभव नहीं है और इस बार की समस्या कुछ और भी है।
कोरोना के कारण शायद इस बार देर रात तक मंदिर खुले भी न रहे, लेकिन इससे हताश या उदास नहीं होना चाहिए। समय – समय का फेर है. फिर आएगी जन्माष्टमी, फिर धूमधाम से मंदिरों को सजाया जायेगा और देर रात तक सब मिलकर बारह बजने का इंतज़ार करेंगे। तब तक घर पर ही लड्डू गोपाल को सजाया जाय।



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