सतेंद्र बनर्जी अपने युवावस्था में एक बार विवेकानद के पास गए और उन्होंने जब उनके सामने गीता के ज्ञान को लेकर जिज्ञासा रखी और गीता समझा देने के लिए कहा तो विवेकानंद ने उन्हें पहले फुटबॉल खेलने की सलाह दे डाली और जबतक वो फ़ुटबाल सीख कर नहीं आये तबतक उन्होंने गीता का एक भी पाठ उनके सामने नहीं किया।
युवाओं के आदर्श विवेकानंद खेल-कूद और व्यायाम के माध्यम से एक स्वस्थ और मजबूत समाज का सपना देखते थे। एक स्वस्थ और सुगठित व्यक्तित्व के लिए मानसिक मजबूती के साथ-साथ शारीरिक मजबूती को भी समान रूप से आवश्यक मानते थे। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता हैं कि एक आस्तिक और धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी विवेकानंद कर्म की महत्ता को आवश्यक मानते थे। उन्होंने धर्म और आस्था पर बात करते हुए कभी भी अंधश्रद्धा और अकर्मण्यता को बढ़ावा नहीं दिया। खेल सिर्फ बच्चों और युवाओं के लिए ही जरुरी नहीं हैं, बल्कि हर मनुष्य को खेल से लगाव होना चाहिए। इसके लिए हमें खेल दिवस को व्यावहारिक बनाना होगा और इसे हमें अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा। खेल-कूद ने अपनी व्यापकता साबित की है। राज्यों और राष्ट्रों के बीच सांस्कृतिक और मानवीय सौहार्द एवं एकता के लिए इसने हमेशा से एक पुल का काम किया। खेल दिवस को जरूर मनाया जाय। लेकिन केवल इतने भर से काम नहीं चलेगा हमें अपने जीवन में इस दिवस को रोज शामिल करना होगा तभी खेल दिवस की सार्थकता मनुष्यों को प्राप्त होगी।