मैं अखबार पढ़ते हुए एक विज्ञापन देख रही थी जिसमे सुन्दर वादियों में सारी सुविधाओं युक्त वृद्धाश्रम दिखा रहे थे ,आश्रम तो नाम के लिए लिखा मैंने वो छोटे सुख सुविधाओं सहित अपार्टमेंट थे जहाँ बुजुर्ग चैन से रह सकें। सोचना ये है की क्या जरुरत है ऐसे घरों की ,तो विदेश में कमाने वाले वहीँ बस गए बच्चे जो पैसा दे सकते है पर साथ नहीं ,ऐसे बुजुर्गों को ये अपार्टमेंट शायद कम्युनिटी लिविंग दे सकते हैं। हर माँ -बाप अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं ,यह सोचकर कि एक दिन बेटा कमाने लगेगा तो सारे सपने पूरे हो जायेंगे | कभी-कभी तो यह भी देखा गया है कि आभिभावक अपनी एकलौती संतान को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रखकर विदेश भेज देते हैं पर वहां जाने के बाद सैलरी पैकेज और लाइफस्टाइल देखकर बच्चे अपना मन बदल लेते हैं और वे वहीँ के होकर रह जाते हैं | भौतिक सुविधाओं की चकाचौंध में बच्चे यह भी भूल जाते हैं कि उनके मातापिता किस हाल में हैं | बच्चे अपनी खुशियों की खातिर माँ बाप का प्रेम भूल जाते है तथा बदले में हर महीने अच्छी रकम भेजते है पर क्या पैसे से अपनापन ख़रीदा जा सकता है .
हम सब जानते हैं की हर माँ बाप का सपना होता है अपने बच्चों की गृहस्थी बसते हुए देखना एवं उनके साथ अपना बाकी का समय बिताना ,पर बच्चे अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं की मां बाप की जरूरतों को भूल जाते हैं। | आज इसी अकेलेपन से बचने के लिए अधिकतर बुजुर्ग दम्पति ओल्ड एज होम को अपना ठिकाना बना ले रहे हैं | उनके पास गाड़ी ,बंगला ,नौकर -चाकर सब हैं, नहीं हैं तो बस उनके अपने जिसकी उन्हें शायद सबसे ज्यादा जरुरत है | माता – पिता अकेले होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी भावनाओं के मामले में पीछे रह गई हैं। शहरों में तो वृद्धाश्रम हैं जो पैसे वाले बुजुर्गों को सभी सुविधाएं प्रदान करते हैं लेकिन गाँवों में निर्धनता और बेरोजगारी हैं और इसलिए सारा जीवन सम्मानपूर्वक व्यतीत करने वाले वृद्धों को निम्न कोटि का जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता हैं। समाज में सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्था परिवार हैं। जीवन का आनंद और जीवन में रूचि परिवार में रह कर ही मिलती है ,परिवार ही एक ऐसी जगह है जहाँ मनुष्य अपनत्व पाता हैं , ममत्व पाता हैं।परिवार को खोकर मनुष्य स्वंय को ही खो देता हैं, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बुजुर्गों के लिए परिवारों में जगह दिनोंदिन सीमित होते जाने की समस्या अब महानगरों तक ही सीमित नही रही , छोटे शहरों , कस्बों तक भी फैल गई है।घरों के बाहर अच्छी नौकरियों के आकर्षण में अक्सर ग्रामीण युवा भी अपना घर – परिवार छोड़कर ,बाहर जा बसते हैं।
वृद्धावस्था जिंदगी का अंतिम पड़ाव है। वृद्धावस्था में अकेलापन वृद्धों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है।
नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में कुछ फासला हमेशा से रहा है जिसको हम पीढ़ी का अंतराल कहते हैं । इसका कारन पीढि़यों के आचार-विचार, जीवन शैली, सोच का अंतर ही है। सच तो ये है की नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से विरासत में न केवल स्थापित जीवन शैली वरन जीवन का दर्शन भी पाती है। अपने जीवन की परिकल्पना वह उसी से करती है । फिर भी न जाने क्यों पुरानी पीढ़ी उसे बोझ सी लगती है। तो फिर क्या है इन अकेले रहते हुए बुजुर्गों की समस्याओं का हल।
वृद्धों की समस्या का एक हल है बहुत से वृद्धों को एक साथ रहने की कोशिश करना | आयु हो जाने के पर अकेले रहते हुए वृद्ध लोगों को चाहिए कि वे ऐसे मकानों में शिफ्ट करें जिन में बहुत से वृद्ध रह रहे हों | ये वृद्धाश्रम न हो,ये वृद्धों की हाउसिंग सोसाइटीयां हों जिसमें वृद्ध एकदूसरे की सहायता कर सकें और एकदूसरे को अपने बच्चों से बचा भी सकें, और मिला भी सकें | आज हमारे समाज की इस भयानक रोग से हर माँ-बाप भयभीत है , उसे अपना आनेवाला कल साफ़ दिखाई दे रहा है जिस वजह से उसका वर्तमान भी भयभीत सा गुजर रहा है | जीवन के इस पड़ाव पर वह खुद को टूटा एवं बिखरा हुआ महसूस कर रहा है | जिस उम्र में उसे अपनों के सहारे की जरुरत महसूस होती है ,जब उन्हें बच्चों का साथ संजीवनी सा काम करता है उसी समय वे नितांत अकेले रह जाते हैं | असुरक्षा की भावना उनके अंतर्मन में इस कदर व्याप्त है कि उन्हें अपना जीवन व्यर्थ सा लगने लगा है | बुजुर्गों की ये सोच उन्हें कई मानसिक रोगों का शिकार बना रही है। यही नहीं अकेले रहते सीनियर सिटीजन्स के साथ होने वाले अपराधों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ये चिंता का विषय है।
वर्तमान की भागमभाग जिंदगी में इंसान इतना व्यस्त है कि उसकी मंजिल सिर्फ और सिर्फ दौलत, शोहरत और भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त करना ही रह गया है ।इसमें कोई शक नहीं कि आज समृद्धि का प्रतिशत बढ़ा है, किंतु मनुष्य ने यह सब सुख सुविधाएं पाने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है ,मसलन आपसी रिश्तो की उपेक्षा, स्वार्थी मनोवृति, अकेलापन, धन लोलुपता के संकुचित दायरे में सिमट कर रह गई हैं। हम न तो दार्शनिक बन सकते हैं न ही समाज सुधारक ,लेकिन हम व्यक्तिगत स्तर पर खुद की सोच तो बदल ही सकते हैं। अपने बुजुर्गों की समय पर खोज खबर लेकर हम उन्हें अकेले पड़ने से बचा सकते हैं।
Very nice and informative article