नयी शिक्षा नीति में स्कूल पाठ्यक्रम के 10 + 2 ढांचे की जगह 5 + 3 + 3 + 4 का नया पाठयक्रम लागू हुआ है और मातृभाषा और स्थानीय भाषा को प्रमुखता दी गयी है । सरकार ने सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण, विकास और उन्हें मजबूत बनाने के लिए अब स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय भाषाओं को शामिल करने की पहल की है। सरकार ने पाँचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की योजना बनाई है, इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। जब मात्र भाषा का नाम आता है तो मुझे महात्मा गाँधी की याद आ जाती है। 1909 में जब महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ लिख रहे थे तो उसमें वह भावी भारतीय राष्ट्र के बारे में बताते हुए कहते है “हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए,प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीय को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का ज्ञान होना चाहिए. और हिन्दी का ज्ञान तो सबको होना चाहिए. ऐसा होने पर हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे.”
नई शिक्षा नीति में निचले स्तर की पढ़ाई के माध्यम के लिए मातृभाषा/ स्थानीय भाषा के प्रयोग पर ज़ोर दिया गया है जिसका उद्देश्य बच्चों को उनकी मातृभाषा और संस्कृति से जोड़े रखते हुए उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाना है। अपनी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में बच्चे को पढ़ने में आसानी होगी और वह जल्दी सीख पाएगा। छोटे बच्चे घर में बोले जाने वाली मातृभाषा या स्थानीय भाषा में जल्दी सीखते हैं, यदि स्कूल में भी मातृभाषा का प्रयोग होगा तो इसका ज़्यादा प्रभाव होगा और वे जल्दी सीख पाएंगे और उनका ज्ञान बढ़ेगा। शिक्षा में स्थानीय भाषा शामिल करने से लुप्त हो रही भाषाओं को नया जीवनदान मिलेगा । दुनिया के सभी विकसित देशों ने अपनी मातृभाषा को हो सर्वोच्च महत्व दिया और इसी को अपने देश की शिक्षा का माध्यम बनाया। रूस, चीन,जापान,जर्मनी,फ्रांस ने अपनी मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया। लेकिन भारत में अंग्रेजी को चलाये रखने के कारण स्थानीय भाषाओं का महत्व कम हुआ। अंग्रेजी सीखना ठीक है,लेकिन उसे मातृभाषा से ऊपर स्थान देना गलत है। नई भारतीय शिक्षा नीति में इस कमी को दूर करने का प्रयास किया गया है और इससे भारतीय भाषाओं के संरक्षण मिलेगा।
भारत की भाषायी समस्या समय के साथ-साथ जटिल रूप ले चुकी है. संविधान सभा में इस विषय पर हुई लंबी बहस का कोई परिणाम नहीं निकला. आज भारत की मुख्य धारा के विमर्श से भाषा का विचार पूरी तरह गायब है. राजनीतिक दलों के संविधानों और घोषणापत्रों में भी इसकी कोई जगह नहीं है . जिस प्रकार का स्पष्ट विमर्श इसपर होना चाहिए था और जिस तरह का भविष्योन्मुखी प्रयास होना चाहिए था, ऐसा कुछ नहीं हुआ .
इसी का नतीजा है की कुछ वर्ष पहले आंध्रप्रदेश में कृष्णा जिले के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज की दो छात्राओं ने आत्महत्या की तो इसके पीछे एक कारण यह भी था कि ये छात्राएं तेलुगु मीडियम से पढ़कर आई थीं और अंग्रेजी में नहीं पढ़ पा रही थी . उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में एक छात्र ने इसलिए फांसी लगा ली, क्योंकि हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने के चलते उसे अंग्रेजी ठीक से समझ में नहीं आती थी और उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं मिल पा रहे थे. बेंगलुरु के मंजूनाथनगर इलाके में एक मेधावी छात्रा आत्महत्या के इरादे से छत से कूद कर जख्मी हो गई, क्योंकि अब तक कन्नड़ माध्यम से शिक्षा ले रही उस बच्ची को अंग्रेजी माध्यम से स्कूल में डाल दिया गया था जहां वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. आजकल ज्यादा रोजगार के अवसर अंग्रेजी में ही होने के चलते माता-पिता अपने बच्चों के इसमें जबरदस्ती झोंकते रहे हैं. इसके चलते उपरोक्त घटनाओं से अधिक कई गुना घटनाएं ऐसी होती हैं जिसमें प्रकट रूप से जान की हानि न भी दीखती हो, लेकिन हमारे छात्र भयंकर मानसिक पीड़ा और घुटन से गुजरते रहते हैं. विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह असह्य है. यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है क्योंकि वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते. हमारे स्नातक अधिकतर कमजोर, निरुत्साही और कोरे नकलची बन जाते हैं. उनमें खोज करने की शक्ति, विचार करने की शक्ति, और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं क्योंकि रट कर पायी हुई विद्या हमें कहीं नहीं ले जा सकती. यहाँ पर जापान का उदहारण देखने योग्य है जापान ने मातृ-भाषा में शिक्षा के द्वारा जन-जागृति की है. इसलिए उनके हर काम में नयापन दिखाई देता है. वे शिक्षकों के भी शिक्षक हैं. मातृभाषा में शिक्षा के कारण जापान के जन-जीवन में उन्नति की हिलोरें उठ रही हैं. और दुनिया जापानियों का काम अचरज भरी आंखों से देख रही है.
भारत में विचार को, ज्ञान-विज्ञान को और रोजगार के अवसरों को संरचनात्मक रूप से एक खास भाषा का पर्याय बना दिया गया है , यही कारण है की भारत का समाज औपनिवेशिक मानसिकता से बीमार होकर अपने ही करोड़ों संभावनाशाली युवाओं को पंगु बना देनेवाला एक आत्मघाती समाज है. आज भारत में तीन से चार प्रतिशत अंग्रेजीभाषी लोग भारत की 96 से 97 प्रतिशत जनता पर हर तरह से एक अन्यायपूर्ण बढ़त बनाए हुए हैं. अंग्रेजी या दुनिया की तमाम भाषाएं अच्छी हैं, सीखने लायक हैं, लेकिन इसके आधार पर एक संरचनात्मक असमानता भारत को अराजकता की ओर ले जा रहा है. सबसे अधिक दयनीय स्थिति तो उनकी है जो न ठीक से अपनी भाषा सीख पाए और न अंग्रेजी ही. जिसकी मौलिकता बची हुई है, उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया गया है. और जो किसी विदेशी भाषा कर दम पर एक अन्यायपूर्ण सत्ता-संरचना में हर जगह छाए हुए हैं, उनकी मौलिकता नष्ट हो चुकी है. हमारी पूरी की पूरी पीढ़ी नकलची बन रही है, अधकचरी बन रही है. अतएव मातृ भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना एक सराहनीय कदम है।
Nice and well researched article